________________
उपादान-निमित्त संवाद ]
[३५७ उपादान कहै तू कहा, चहुँगति में ले जाय। तो प्रसाद” जीव सब, दुःखी होंहिं रे भाय!।३३ ॥ कहै निमित्त जो दुःख सहै, सो तुम हमहिं लगाय। सुखी कौन होत हैं, ताको देहु बताय ॥३४॥ जो सुख को तू सुख कहै, सो सुख तो सुख नाहिं। ये सुख तो दुःख-मूल है, सुख अविनाशी माहिं ॥३५॥ अविनाशी घट-घट बसे, सुख क्यों विलसत नाहिं। शुभ निमित्त के योग बिन, परे-परे बिललाहिं ॥३६॥ शुभ निमित्त इह जीव को, मिल्यौ अनन्तीबार। पै इक सम्यग्दर्श बिन, भटकत फिरयौ गंवार ॥३७॥ सम्यग्दर्श भये कहा, त्वरित मुक्ति में जाहिं। आगे ध्यान निमित्त है, ते शिव को पहुँचाहिं ॥३८॥ छोरि ध्यान की धारणा, मोरि योग की रीति। तोरी कर्म के जाल को, जोरि लई शिव प्रीत ॥३९॥ तब निमित्त हार्यो तहाँ, अब नहीं जोर बसाय। उपादान शिवलोक में, पहुँच्यौ कर्म खिपाय ॥४०॥ उपादान जीत्यो तहाँ, निज बल कर परकास। सुख अनन्त ध्रुव भोगवे, अन्त न वरन्यौ तास ॥४१ ।। उपादान अरु निमित्त ये, सब जीवन पै वीर। जो निज शक्ति सँभार ही, सो पहुँचे भवतीर ॥४२॥ 'भैया' महिमा ब्रह्म की, कैसे वरनी जाय ? वचन अगोचर वस्तु है, कहिबी वचन बताय॥४३॥ उपादान अरु निमित्त को, सरस बन्यौ संवाद। समदृष्टि को सरल है, मूरख को बकवाद ॥४४॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org