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[ वृहद् आध्यात्मिक पाठ संग्रह
कहो अनादि निमित्त बिन, उलट रह्यौ उपयोग ? ऐसी बात न संभवें, उपादान तुम जोग ॥ २० ॥ उपादान कहे रे निमित्त ! हम पै कही न जाय । ऐसे ही जिन केवली, देखे त्रिभुवन राय ॥ २१ ॥ जो देख्यो भगवान ने, सो ही साँची आहिं । हम-तुम सङ्ग अनादि कै, बली कहोगे काहिं ॥ २२ ॥ उपादान कहे वह बली, जाको नाश न होय । जो उपजत विनशत रहे, बली कहाँ तैं सोय ॥२३॥ उपादान तुम जोर हो, तो क्यों लेत आहार ? पर निमित्त के योग सौं, जीवत हैं जगमाहिं ॥ २४ ॥ जो आहार के योग सौं, जीवत हैं जगमाहिं । तो वासी संसार के, कोऊ मरते नाहिं ॥ २५ ॥ सूर सोममणि अग्नि के, निमित्त लखें ये नैन । अन्धकार में कित गयो, उपादान दृग दैन ॥ २६ ॥ सूर सोम मणि अग्नि जो, करे अनेक प्रकासं । नैन शक्ति बिन ना लखै, अन्धकार सम भास ॥२७॥ कहै निमित्त वे जीव को ? मो बिन जग के माहिं । सबै हमारी वश परे, हम बिन मुक्ति न जाहिं ॥२८ ॥ उपादान कहै रे निमित्त ! ऐसे बोल न बोल । तोको तज निज भजत हैं, ते ही करें किलोल ॥२९॥ कहै निमित्त हम को तजै, ते कैसे शिव जात ? पंच महाव्रत प्रगट हैं, और हु क्रिया विख्यात ॥३०॥ पंच महाव्रत जोग त्रय, और सकल व्यवहार । पर कौ निमित्त खिपाय के, तब पहुँचे भव- पार ॥३१॥ कहै निमित्त जग में बढ्यौ, मो तैं बड़ौ न कोय। तीन लोक के नाथ सब, मो प्रसादतैं होंय ॥३२॥
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