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उपादान-निमित्त संवाद ]
[ ३५५ उपादान बिन निमित्त तू, कर न सके इक काज। कहा भयो जग ना लखै, जानत हैं जिनराज ॥७॥ देव-जिनेश्वर गुरु-यती, अरु जिन-आगमसार। इह निमित्त तैं जीव सब, पावत हैं भव-पार ॥८॥ यह निमित्त इह जीव को, मिल्यौ अनन्ती बार। उपादान पलट्यौ नहीं, तो भटक्यौ संसार ॥९॥ कै केवलि कै साधु के निकट भव्य जो होय। सो क्षायिक सम्यक् लहै, यह निमित्त बल जोय ॥१०॥ केवलि अरु मुनिराज के, पास रहे बहु लोय। पै जाको सुलट्यौ धनी, क्षायिक ताको होय ॥११॥ हिंसादिक पापन किये, जीव नरक में जाहिं।
जो निमित्त नहीं काम को, तो इम काहे कहाहिं ॥१२॥ हिंसा में उपयोग जहाँ, रहे ब्रह्म का राच। तेई नरक में जात हैं, मुनि नहिं जाहिं कदाच ॥१३॥ दया-दान-पूजा किये, जीव सुखी जग होय। जो निमित्त झूठी कहौ, यह क्यों माने लोय ॥१४॥ दया-दान-पूजा भली, जगत माहिं सुखकार। जहँ अनुभव को आचरण, तहँ यह बन्ध विचार ॥१५॥ यह तो बात प्रसिद्ध है, सोच देख उर माहिं। नर-देही के निमित्त बिन, जिय त्यों मुक्ति न जाहिं॥१६॥ देह पीजरा जीव को, रोकैं शिवपुर जात। उपादान की शक्ति सों, मुक्ति होत रे भ्रात!।१७॥ उपादान सब जीव पै, रोकन हारो कौन ? जाते क्यों नहिं मुक्ति में, बिन निमित्त के हौन ॥१८॥ उपादान सु अनादि को, उलट रह्यौ जगमाहिं। सुलटत ही सूधे चले, सिद्ध लोक को जाहिं ॥१९॥
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