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[वृहद् आध्यात्मिक पाठ संग्रह शीत पडै कपि-मद गलै, दाहै सब वनराय। तालतरङ्गनि के तटैं, ठाडे ध्यान लगाय॥ ते गुरु.॥ इहि विधि दुद्धर तप तपैं, तीनों काल मँझार। लागे सहज सरूप में, तनसौं ममत निवार ॥ ते गुरु.॥ पूरब भोग न चिंतनै, आगम वाँखें नाहिं। चहुँगति के दुःखसों डरें, सुरति लगी शिवमाहिं।। ते गुरु.॥ रंग महल में पोढ़ते, कोमल सेज विछाय। ते पच्छिम निशिभूमि में, सोवें संवरि काय॥ ते गुरु.॥ गजचढ़ि चलते गरवसों, सेना सजि चतुरङ्ग। निरखि निरखि पग वे धरै, पालैं करुणा अङ्ग॥ ते गुरु.॥ वे गुरू चरण जहाँ धरै, जग मैं तीरथ जेह।। सो रज मम मस्तक चढ़ो, 'भूधर' मांगे एह॥ ते गुरु. ॥
उपादान-निमित्त संवाद पाद प्रणमि जिनदेव के, एक उक्ति उपजाय। उपादान अरु निमित्त को, कहूँ संवाद बनाय॥१॥ पूछत है कोऊ तहाँ, उपादान किह नाम ? कहो निमित्त कहिये कहा, कब कै है इह ठाम ॥२॥ उपादान निज शक्ति है, जिय को मूल स्वभाव। है निमित्त परयोग तें, बन्यौ अनादि बनाव ॥३॥ निमित्त कहे मोकों सबै, जानत है जगलोय। है निमित्त परयोगते, बन्यो अनादि बनाव ॥४॥ उपादान कहे रे निमित्त! तू कहा करै गुमान। मोकों जानें जीव वे, जो हैं सम्यक्वान ॥५॥ कहैं जीव सब जगत के, जो निमित्त सोई होय। उपादान की बात को, पूछे नाहीं कोय ॥६॥
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