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गुरु वंदना ]
[३५३ जब जमैं पानी पोखरां, थरहरै सबकी काय॥ तब नगन निवसैं चौहटैं, अथवा नदी के तीर। ते साधु मेरे उर बसहु, मम हरहु पातक-पीर ॥७॥ कर जोर 'भूधर' बीनवै, कब मिलहिं वे मुनिराज। यह आश मन की कब फलै, मम सरहिं सगरे काज॥ संसार-विषम-विदेश में, जे बिना कारण वीर। ते साधु मेरे उर बसहु, मम हरहु पातक-पीर ॥८॥
गुरु स्तुति ते गुरु मेरे मन बसो जे भवजलधि जिहाज। आप तिरहिं पर तारहिं, ऐसे श्री ऋषिराज ॥ ते गुरु.॥ मोह महारिपु जानिकैं, छाड्यो सब घरबार। होय दिगम्बर वन वसे, आतम शुद्धविचार ॥ ते गुरु.॥ रोग उरग-बिल वपु गिण्यो, भोग भुजंग समान। कदली तरु संसार है, त्याग्यो सब यह जान ॥ ते गुरु.॥ रतनत्रयनिधि उर धरै, अरु निरग्रन्थ त्रिकाल। मास्यो कामखवीस को, स्वामी परम दयाल ॥ ते गुरु.॥ पंच महाव्रत आदरें पांचों समिति समेत। तीन गुपति पालैं सदा, अजर अमर पदहेत॥ ते गुरु.॥ धर्म धरै दशलाछनी, भावें भावन सार। सहैं परीषह बीस बै, चारित-रतन-भण्डार ।। ते गुरु.॥ जेठ तपै रवि आकरो, सूखै सरवर नीर। शैल-शिखर मुनि तप तपैं, दाझै नगन शरीर ॥ ते गुरु.॥ पावस रैन डरावनी, बरसै जलधरधार। तरुतल निवसैं तब यती, बाजै झंझा ब्यार ॥ ते गुरु.॥
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