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[ वृहद् आध्यात्मिक पाठ संग्रह
गुरु वंदना
वन्दौं दिगम्बर गुरु चरन, जग-तरन तारन जान। जे भरम - भारी रोग को हैं, राजवैद्य महान ॥ जिनके अनुग्रह बिन कभी, नहिं कटै कर्म- जंजीर । ते साधु मेरे उर बसहु, मम हरहु पातक-पीर ॥१ ॥ यह तन अपावन अथिर है, संसार सकल असार । ये भोग विष पकवान से, इह भांति सोच-विचार ॥ तप विरचि श्री मुनि वन बसे, सब छांडि परिग्रह भीर । ते साधु मेरे उर बसहु, मम हरहु पातक - पीर ॥२ ॥ जे काँच-कञ्चन सम गिनहिं, अरि-मित्र एक सरूप । निन्दा-बड़ाई सारिखी, वन- खण्ड शहर अनूप ॥ सुख-दुःख जीवन-मरन में, नहिं खुशी, नहिं दिलगीर । ते साधु मेरे उर बसहु, मम हरहु पातक - पीर ॥३ ॥ जे बाह्य परवत वन बसें, गिरि - गुफा - महल मनोग । सिल-सेज समता - सहचरी, शशि- किरन - दीपक जोग ॥ मृग - मित्र, भोजन तप - मई, विज्ञान - निरमल नीर । ते साधु मेरे उर बसहु, मम हरहु पातक - पीर ॥४ ॥ सूखहिं सरोवर जल भरे, सूखहिं तरङ्गिनि तोय | बाटहिं बटोही ना चलै, जहँ घाम- गरमी होय ॥ तिहुँकाल मुनिवर तप तपहिं, गिरि-शिखर ठाड़े धीर । ते साधु मेरे उर बसहु, मम हरहु पातक - पीर ॥५ ॥ घनघोर गरजहिं घन-घटा, जल परंहि पावस-काल । चहुँ ओर चमकहिं बीजुरी, अति चलै सीरी ब्याल ॥ तरु- हेठ तिष्ठहिं तब जती, एकान्त अचल शरीर । ते साधु मेरे उर बसहु, मम हरहु पातक - पीर ॥६॥ जब शीत मास तुषारसों, दाहै सकल
बन - राय ।
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