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आत्मचिन्तन की घड़ी है]
[३५१ आत्मचिन्तन की घड़ी है। समझ धर उर कहत गुरुवर, आत्मचिन्तन की घड़ी है। भव उदधि तन अथिर नौका, बीच मँझधारा पड़ी है।टेक॥ आत्म से है पृथक् तन-धन, सोच रे मन कर रहा क्या? लखि अवस्था कर्म-जड़ की, बोल उनसे उर रहा क्या? ज्ञान-दर्शन चेतना सम, और जग में कौन है रे? दे सके दुख जो तुझे वह, शक्ति ऐसी कौन है रे? कर्म सुख-दुख दे रहे हैं, मान्यता ऐसी करी है।
चेत चेतन प्राप्त अवसर, आत्मचिन्तन की घड़ी है॥१॥ जिस समय हो आत्मदृष्टि, कर्म थर थर काँपते हैं। भाव की एकाग्रता लखि, छोड़ खुद ही भागते हैं। ले समझ से काम या फिर चतुर्गति ही में विचर ले। मोक्ष अरु संसार क्या है, फैसला खुद ही समझ ले॥ दूर कर दुविधा हृदय से, फिर कहाँ धोखा-धड़ी है। समझ उर धर कहत गुरुवर, आत्म चिन्तन की घड़ी है ।।२।। कुन्दकुन्दाचार्य गुरुवर, यह सदा ही कह रहे हैं। समझना खुद ही पड़ेगा, भाव तेरे बह रहे हैं। शुभ क्रिया को धर्म माना, भव इसी से धर रहा है। है न पर से भाव तेरा, भाव खुद ही कर रहा है। है निमित्त पर दृष्टि तेरी, बान ही ऐसी पड़ी है। चेत-चेतन प्राप्त अवसर, आत्म-चिन्तन की घड़ी है ॥३॥ भाव की एकाग्रता रुचि, लीनता पुरुषार्थ कर ले। मुक्ति-बन्धन रूप क्या है, बस इसी का अर्थ कर ले॥ भिन्न हूँ पर से सदा मैं, इस मान्यता में लीन हो जा। द्रव्य-गुण-पर्याय ध्रुवता, आत्म सुख चिर नींद सो जा॥ आत्म गुणधरलाल अनुपम, शुद्ध रत्नत्रय जड़ी है। समझ उर धर कहत गुरुवर, आत्म-चिन्तन की घड़ी है॥४॥
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