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__ [वृहद् आध्यात्मिक पाठ संग्रह राम कहें प्यारी चल धरूँ, ल्या भुज में भुज डारि। पाड़ि शिखा कर पैं धरि दई, त्यागौ हम संसार ॥१३॥ तुम त्यागी निरदोष कूँ, हम त्यागे लख दोस। करके छिमा मैं संजम लियौ, करियौ मत अफसोस ॥१४॥ गई सती जी बन खण्ड कू भई अरजिका धीर। उग्र-उग्र तप वो करे, सब दुःख सहे शरीर ॥१५॥ पूरी करि परजाय 1,अच्युत सुरग मंझार । इन्द्र भए जी पुन्य संजोग से, भोगे सुक्ख अपार ॥ बिन कारण स्वामी क्यों तजी, बिनवै जनक दुलारी॥१६॥
उपसंहार पढ़ि यो भाई भावसों, गावो बाल गोपाल । भावोजी धरम की ही भावना, सिर पर गरजत काल॥१॥ शील महातम मैं कह्या, या सम धरम न कोय। शील रतन मोटा रतन, जाते जग यश होय ॥२॥ पर भव में सुख सम्पदा, इन्द्रादिक पद पाय। काटि करम शिव सुन्दरि वरे, जन्म-मरण छुटि जाय ॥३॥ वंश बढ़े सब संकट कटे, सोग वियोग न कोय। रोग मिटे जो सेवो संतजन, पाप सकल गेरे धोय ॥४॥ नैं नानन्द प्रबन्ध यह, दया सिन्धु सुतहेत। गायो ध्याय जिनेन्द्र कुँ, पद्मपुराण उपेत ।।५।। संवत विक्रम भूपको, नवशत एक हजार । तापर षट् चालीस धर (१९४६) लीज्यो सुघड़ संभाल॥६॥ माघ शुक्ल पून्यो के दिनां, पूरे किए बारह मास। दया-सिन्धु जिन धर्म कूँ, कीज्यौ पुत्र प्रकाश ॥७॥ मत पड़ियो बेटा कुपन्थ में, तजियो मत जिन ,धर्म। कर लीज्यो बेटा नरभव को सफल, रख लीज्यो मेरी शर्म॥८॥
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