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________________ बारहमासा( सीता सती)] [३४९ १२.जेठ मास जेठ तपैं सुरज आकरै, नीचैं अग्नि प्रचण्ड । आस-पास जल-थल क्यार सब सूकिं गए बहु बनखण्ड॥१॥ कूद पड़ी जलती डीग में, शान्ति भई ततकाल। उभरे कमल अकाश लों, लीनी अधर सहार ॥२॥ जल लहरावे बोले हंसनी, कर रही मीन कल्लोल। छत्र फिरै जी उसके सीस पे, इन्द्र चवर रहै ढोल ॥३॥ शीतल मन्द सुगन्ध जुत, मीठी-मीठी चले जी बयार। बरर्षे मनु अमृत झड़ी, देव करें जै-जैकार ॥४॥ धन्य सती धन सतवन्ती, धन-धन धीरज एह । धिक्-धिक हम उनकों करे, जिनके मन सन्देह ॥५॥ सीता भावे मनमें भावना, यह संसार अनित्य। धर्म बिना तीनों लोक में, शरण सहाई ना मित्र ॥६॥ उलट-पुलट चाले हटरसा ये संसारी चक्र । एक अकेला भटके आतमा, क्या पशु-पक्षी अरू क्या शक्र॥७॥ अन कोई जग में आपना, अन हम काहू के मीत। अशुचि अपावन तन विर्षे, करम करे विपरीत ॥८॥ संवर जल बिन ना बुझे, तृष्णा अगन प्रचण्ड। कर्म खपाये बिन ना खपे, भटके सब ब्रह्मण्ड ॥९॥ दुर्लभ बोध जगत में, दुर्लभ श्री जिनधर्म। दुर्लभ स्वपर विचार है, कर्म न डारो भर्म ॥१०॥ पर वश भोगी भारी वेदना, स्ववश सही नहिं रंच। सास्वत सुख जासैं पावती, लई करम ने बन्च ॥११॥ अब मैं सब वेदना सही, कीनी धरम सहाय। परतिज्ञा पूरी मैं करूँ, मोह महा दुःख दाय ॥१२॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003172
Book TitleBruhad Adhyatmik Path Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaykumar Devlali
PublisherKundkundswami Swadhyaya Mandir Trust Bhind
Publication Year2008
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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