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बारहमासा( सीता सती)]
[३४७ १०.चेत्र मास चैत मास नारद मुनि मिलै, चरन पड़े दोऊ वीर। राम लखन किसी सम्पदा, हूज्यो थारे घर वर वीर ॥१॥ पूछिये अपनी मात से, राम लखन माता कौन। टस-टस लागे आँसू टपकने, मस्यो मन धस्यो मौन ॥२॥ नारद मुनि समझाइयें, पिछले सकल वृतान्त । सुनत उठे जोधा खड्ग ले, बैंठ विमाण तुरन्त ॥३॥ घेरि अजुध्या रण भेरी दई, काँपे सुरग पाताल। सोच भयो श्री रघुवीर के, आये कौन अकाल॥४॥ निकसे दोऊ भ्राता जुद्ध], खूब मचाए घमसान। राम लखन घबरा दिए, पटक्यों रथ काँटे बाण ॥५॥ हल मूसल ठाए राम ने, लछमन चक्र सम्भार । सातबार फँक्यों तान के, वृथा गए सातों बार ॥६॥ हम हरिबल अक एकि घों, उपजो सोच अपार।। आग बबूला होके फिर लियो, चक्र प्रलय करतार ॥७॥ तब नारद आए भूमि में,राम लखन दिग जाय। बात कही सब समझाय के,किस मैं कोपे रघुराय ।।८।। पुत्र तुमारे दोऊ भुजबली, लव अंकुश बलवन्त। मात-विपत सुनि कोपियो, भाष्यो सकल वृतन्त ॥९॥ भरि आई छाती श्री रघुवीर की,रन] दियो है निवार। आय परे सुत चरन में, लीने दोऊ पुचकारि ॥१०॥
११.बैशाख मास मास बैंशाख बसन्त ऋतु, सुनि सीताजी की सार। भाग पड़े हनुमत से बली, ल्याए करि मनुहार ॥१॥ बज्रजंघ आयो धूम से, ल्यायो सब परिवार । राम कहें मैं आने दूँ नहीं, सीता दई मैं निकार॥२॥
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