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[ वृहद् आध्यात्मिक पाठ संग्रह जिस दिन प्रभु पल्ला पाक हो, मिले मोहि भरतार | भरम मिटा के धारूँ धरम को, त्यागूँ सब संसार ॥६॥ राम मनावैं तौ भी ना मनूँ, कर जाऊँ बन को विहार । कर पै श्री रघुवीर के, चोटी धरूँगी उपाड ॥७ ॥ भावें यों सती जी बैठी भावना, ध्यावें पद नवकार । पाप घट्यो प्रगट्यो पुण्य फल, सुन लई तुरत पुकार ॥८ ॥ पुण्डरीक पुर नगर को बज्रजंघ भूजाल । आ गये पुण्य संजोग तें, गज पकड़न वाही काल ॥९॥ ढूँढत गज पति बन विषै, भनक पड़ी वाके कान । कोई सतवन्त रोवे बन विषै, किन ये सताई जी अज्ञान ॥१० ॥ दोष लगायो कैंसे पूछिये, गज तजि उतरयो धीर । विनय सहित दुःख पूछिये चल्यो, आवे जैसे भैना के घर वीर ॥११ ॥ तुम हो बहिन मेरी धर्म की, विपत कहों समझाय । मात-पिता परिवार से, दूँगो बहन मिलाय ॥१२॥ जनक पिता की हूँ मैं लाडली, भ्रात भामण्डल धीर । स्वसुर हमारे दसरथ नृपबली, भर्ता सिरी रघुवीर ॥१३॥ रावण हरि करि ले गयो दोष धरे संसार | शील में मेरे सब संसे करें, दीनी राम निकार ॥ १४ ॥ सुनत कथा जी छाती थर हरी, टपकें असुबन धार । हा हारे कर्म तें ए क्यों कसी, कियों तुरत उपगार ॥१५ ॥ देव धरम दिये बीच में, बहन बनाई तत्कार | पुन्डरीकपुर ले गयो, करि के गज असवार ॥१६ ॥ पुत्र भए दो लव कुश बली, शिवगामी अवतार । बज्र जंघ रक्षा करी, पाली किये हुशियार ॥ १७ ॥
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