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बारहमासा( सीता सती)]
[३४५ पग भारी जी गिर-गिर मैं पडूं शरण सहाय न कोय। अपनी कही ना मेरी तुम सुनी, बहुत अंदेशा है मोहि॥४॥
८.माघ मास माघ प्रभुजी पाला पड़ रहा, पौढन कूँ नहीं सेज।
ओढ़न कूँ नहीं काँवली, दई क्यों विपति में भेज ॥१॥ सिंह दहाडै कूकै भेड़ियो, मारे गज चिंघाड़। थर-थर काँपैं थारी कामनी, स्यालन रही है दहाड़॥२। नाचैं भूत पिशाच गए, रूण्डमुण्ड विकराल। सनन-सनन सारा बन करै, काँटे चुभै कराल ॥३॥ कित बैठू ले, कित प्रभु पास खवास न कोय। अन्न करूँ न पानी मैं पिऊँ, बालक कूँ दुःख होय॥४॥ तुम सब जानों प्रभु मेरे हालकूँ, अष्टम वलि अवतार। तुम सूरज मैं पट बीजनी, क्या समझाऊँ भरतार ॥५॥ समरथ हो प्रभू क्यों कसी, प्रगट कियों क्यों न दोष । धोखा दे क्यो धक्का दियौ, आवै नहीं सन्तोष ॥६॥
९.फाल्गुन मास फागन आई जी अठाइयाँ, अपने करम कूँ दे दोष । ध्यान धरचौ भगवान को, बैठि रही मन मोस ॥१॥ अरज करे प्रभु की हजूर मैं, ममता भाव निवार। तुम ही पिता हो प्रभु तुम मात हो, तुम हो भ्रात हमार ॥२॥ निर्धन के प्रभु तुम धनी, निर्जन के हो परिवार । इकवर राम मिलाइयो, दीजियो दोष उतार ॥३॥ तुम हो राजा प्रभु जी धरम के, हम कूँ लगायो परजा दोष। शील में मेरे सब सन्से करें, राम रुसाये हो गये रोष ॥४॥ त्याग दिये है प्रभु हम रामजी, त्याग दियो है सब संसार। गर्भवती हू कर्म संयोग से, इससे हुई हूँ लाचार ॥५॥
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