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[ वृहद् आध्यात्मिक पाठ संग्रह भ्रात हटाई आफै मूर्छा, सकल शत्रु गण जीत । परौ जटायु देख्यौ सिसकतौ, श्रावक धर्म पुनीत ॥ ३ ॥ जन्म सुधार्यो वाको आपने, मोबिन पायौ नहिं चैन । डारी डारी ढूंढ़ी दोऊँ मिल बन विषै, रोय सुजाए तुम नैन ॥४ ॥ धीर बन्धाई लछमन भुजबली, बहुत करी थारी सेव । विपट कटैगी प्रभु समता धरो, तदपि न माने थे तुम देव ॥५ ॥ ल्याऊँ काढ़ि पताल से, ल्याऊँ पर्वत फोर । खबर मिलै तो सब कुछ मैं करूँ, चीर बगाऊँ थारा चोर ॥६ ॥ फेर मिले जी प्रभु सुग्रीव सैं, साहसगति दियौ मारि । पाय सुतारा ल्यायौ हनुमान कूँ, ढूढ़न भेज्यौ मोहि सकार ॥७ ॥ ६. अगहन मास
अगहन खबर मंगाय कैं, मोढिग भेज्यों तुम हनुमान । कूदि समन्दर गयो गढ़ लंक में, भेजी अँगूठी तुम भगवान ॥१ ॥ तुम बिन बैठ रो रही बाग मैं, राम ही राम पुकार । अन्न कियौ ना पानी मैं पियौ, परवश हुई थी लाचार ॥२॥ मुख धुलवायौ श्री हनुमान ने, तुमरी आज्ञा के परमान। प्राण बचाए मेरे विपत मैं, करवायौ जलपान ॥३॥ तुरत ही भेज्यौ तुमरे चरण में चूड़ामणि दियौ तारि । गाय फँसी है गाढ़ी गार में, खैचि निकारौं जी भरतार ॥४ ॥ ७. पौष मास
पौष चढ़ जी गढ़ लंक पैं, भारत कियौ भगवान । गारत किये लाखों सूरमा, मारि कियौ घमसान ॥१॥ काट्यौ सिर लंकेश को, लक्ष्मी धर वर वीर । कूद पड़े जी जोधा लङ्क मैं, लवण समुन्दर चीर ॥२ ॥ ल्याए तुरत छुड़ाय कै, अशरण शरण अधार । इतनी करि ऐसी क्यों करी, घर से दई क्यों निकार ॥३ ॥
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