________________
बारहमासा ( सीता सती ) ]
[ ३४३
मरण दिवो नहिं ता दिना, करम लिखे दुख एह । करी नजर राजा जनक के, पाली पुत्र सन्देह ॥ ३ ॥ जनक स्वयम्वर जब कियो, लिए सब भूप बुलाय । दरशन करि थारे बश भई पड़ी चरणविच आय ॥४॥ ४. कुवार मास
क्वार मास फिर गए भूप सब, मो कारण कियौ जुद्ध । बहुत बली मारे रणविषै ठायौ धनुष प्रबुद्ध ॥ १ ॥ खरदूषण के युद्ध में, आयौ रावण दौड़ । छलकर धोखा प्रभु कूँ दियौ, नाद बजायौ घनघोर ॥२ ॥ जल्दी पधारौ प्रभु मैं घिर गयौ, तुम जानी भगवान । कष्ट पडयौ जी मेरे भ्रात पै, उपज्यौ मोह महान् ॥३ ॥ मोहि कोई पात बटोर कै, करम लिखी कछु और । आप पधारे अपने वीर पै, आ गयो रावण चोर ॥४ ॥ चील झपट्टा करि कै ले गयौ, मो कूँ अचक उठाय । देखी नाथ जटायु ने, क्या तुम जानत नाहिं ॥५ ॥ झपट - झपट वाके सिर हुयौ, मुकुट खसोटयौ मूँछ उपारि । मारि तमाचा डारौ भूमि मैं, पंछी खाईजी पछार ॥६ ॥ लछमन तुमहिं निहारि कै, बात कही करि गौर । बिनहिं बुलाए आए भ्रात क्यों, है कछु कारन और ॥७ ॥ काहू छलिया नैं ये कछु छल कियौ, कै कछु कर्म चरित्र । नाहिं पिछान्यौ जावै जुद्ध में, कौन है बैरी कौन है मित्र ॥८ ॥ ५. कार्तिक मास
कार्तिक तुरत पठाइया, उलाट तुम्हें थारे भ्रात । बिना ही बुलायें आए आप क्यूं, शत्रु करेंगे उतपात ॥१ ॥ आएजी तुरत रक्षा करन कूँ, हम सें धरि प्रभु प्यार । बिखरे ही पाए पत्ते बेल सब, खाई आप पछार ॥२॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org