________________
३४२]
[वृहद् आध्यात्मिक पाठ संग्रह बारह मासा( सीता सती का) बिन कारन स्वामी क्यों तजी, बिनवै जनक दुलारिटेक॥
१.आषाढ़ मास आसाढ़ घुमडि आए बादरा, घन गरजे चहुँ ओर। निर्जन बन मैं स्वामी तुम तजो, बैंठन कूँ नहिं ठौर ॥१॥ क्या हम सत गुरू निंदियौ, क्या दियौ सतियन दोष। क्या हम सत संयम तज्यौ, किस कारन भए रोष ॥२॥ क्या पर पुरुष निहार के, पर भव कियौ है निदान। क्या इस भव इच्छा करी, क्या मैं कियौ अभिमान ॥३॥ कटुक वचन स्वामी नहिं कहे, हिंसा करम न कीन। परधन पर चित नहिं दियौ, क्यों मन भयो है मलीन ॥४॥
२.श्रावण मास श्रावण तुम सङ्ग वन विषै, विपति सही भगवान। पाय पयादी बन-बन मैं फिरी, तनिक राखी मोरी कान ॥१॥ स्वसुर दिसौठा जिस दिन तुम दियौ, कियौ भरत सरदार। ता दिन विकल्प नहिं कियो, तजि संपति भई लार ॥२॥ जनक पिता की मैं हूँ लाड़ली मात विदेहा की बाल भ्रात प्रभामण्डल बली, विपत भरूँ बेहाल ॥३॥ मात मन्दोदरी गर्भ से, जन्मी रावण गेह। परभव करम सँयोग से, रावण कियौ है संदेह ॥४॥
३.भादौ मास भादौं पण्डित पूछियो, पण्डित करी है विचार। कन्या के कारण राजा तुम मरो, दीनी तुरत बिसार ॥१॥ गाड़ धरि मन्जूष मैं, जनक नगर बन बीच। हल जोतत किरसान के, लई करम ने खींच ॥२॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org