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बारहमासा(राजुल) ]
[३३९ उन फूटे घड़े मंझार, दिया जल डार; तो वे आधार थमा जल झरना। निर्नेम नेम बिन हमें जगत क्या करना |मैं लूंगी. ॥
चैत्र मास
(झडी) सखि चैत्र में चिन्ता करे, न कारज सरे; शील से टरे कर्म की रेखा। मैंने शील से भील को होत जगतगुरु देखा। सखि शील से सुलसा तिरी, सुतारा फिरी; खलासी करी श्री रघुनन्दन। अरु मिली शील परताप पवन से अञ्जन॥
(झर्वटें) रावण ने कुमत उपाई, फिर गया विभीषण भाई। छिन में जा लङ्क ढहाई, कुछ भी नहिं पार बसाई ।।
(झड़ी) सीता सती अग्नि में पड़ी, तो उस ही घड़ी; वह शीतल पड़ी, चढ़ी जल धारा। खिल गये कमल भये गगन में जयजयकारा॥ पद पूजे इन्द्र धरेन्द्र भई शीतेन्द्र; श्री जैनेन्द्र ने ऐसे बरना। निर्नेम नेम बिन हमें जगत क्या करना ॥ मैं लूंगी. ॥
बैसाख मास
(झड़ी) सखि आई वैसाखी मेख, लई मैं देख; ये ऊरध रेख पड़ी मेरे कर में।
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