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चारहमासा( राजुल) ]
[३३७ पौस मास
(झड़ी) सखि लगा महीना पौस, ये माया मोह, जगत से द्रोह अरु प्रीत करावै। हरे ज्ञानावरणी ज्ञान अदर्शन छावै ॥ पर द्रव्य से ममता हरे, तो पूरी परै, जु संवर करै तो अन्तर टू टै। अरु उँच नीच कुल नाम की संज्ञा छूटै॥
(झर्वटें) क्यों ओछी उमर धरावै, क्यों सम्पति को बिलखावैं। क्यों पराधीन दुःख पावै, जो संयम में चित लावै॥
(झड़ी) सखि क्यों कहलावे दीन, क्यों हो छवि छीन; क्यों विद्याहीन मलीन कहावै। क्यों नारी नपुंसक जन्म में कर्म नचावै॥ वे तजै शील शृङ्गार, रुलै संसार; जिन्हें दरकार नरक में पड़ना। निर्नेम नेम बिन हमें जगत क्या करना ।।मैं लूंगी. ॥
माघ मास
(झड़ी) सखि आ गया मास बसन्त, हमारे कन्त; भये अरहंत वो के वल ज्ञानी। उन महिमा शील कुशील की ऐसी बखानी॥ दिये सेठ सुदर्शन शूल, भई मखतूल; वहाँ बर से फूल हुई जयवाणी। वे मुक्ति गये अरु भई कलङ्कित राणी॥
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