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[वृहद् आध्यात्मिक पाठ संग्रह
(झड़ी) है अस्थिर जगत सम्बन्ध, अरि मति मन्द; जगत का धन्ध है धुन्ध पसारा। मेरे प्रीतम ने सत जानके जगत बिसारा ।। मैं उनके चरण की चेरी, तू आज्ञा दे री; सुनले मां मेरी, है एक दिन मरना। निर्नेम नेम बिन हमें जगत क्या करना ।।मैं लूंगी. ॥
अगहन मास
(झडी) सखि अगहन ऐसी घड़ी उदय में पड़ी; मैं रह गई खड़ी दरस नहीं पाये। मैंने सुकृत के दिन विरथा यों ही गँवाये। नहिं मिले हमारे पिया, न जप तप किया; न संयम लिया अटक रही गज में। पड़ी काल-अनादि से पा की बेड़ी पग में॥
(झर्व) मत भरियो मांग हमारी, मेरे शील को लागे गारी। मत डारो अंजन प्यारी, मैं योगिन तुम संसारी॥
हुये कन्त हमारे जती, मैं उनकी सती; पलट गई रती तो धर्म न खण्डू। मैं अपने पिता के वंश को कैसे भण्डू॥ मैं महाशील सिंगार, अरी नथ तार; गये भर्तार के सङ्ग आभरना। निर्नेम नेम बिन हमें जगत क्या करना ।।मैं लूंगी. ॥
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