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[ वृहद् आध्यात्मिक पाठ संग्रह
मत कहो अब कुछ और प्रभु भवभोग से मन कॉपिया । तुम समझ सोई समझ हमरी हमें नृपपद क्यों दिया ॥४५ ॥
मन वैशाख सुनत अरदास, अब बोलन को नहीं ठौर,
(चौपाई)
चक्री मन उपज्यो विश्वास। मैं कहूँ और पुत्र कहें और ||४६ ॥
(गीत छन्द)
और अब कछु मैं कहूँ नहिं रीति जग की कीजिए । एक बार हमसे राज लेके चाहे जिसको दीजिए ॥ पोता था एक षट्मास का अभिषेक कर राजा कियो । पित संग संग जगजाल सेती निकस वन मारग लियो ॥ ४७ ॥ (चौपाई) उठे वज्रदन्त चक्रेश, तीस सहस भूप तजि अलवेश । एक हजार पुत्र बड़ भाग, साठ सहस्र सती जग त्याग ॥ ४८ ॥ (गीत छन्द)
त्याग जग कूँ ये चले सब भोग तज ममता हरी । समभाव कर तिहुँलोक के जीवों से यों विनती करी ॥ अहो जेते जीव जग में क्षमा हम पर कीजिये । हम जैन दीक्षा लेत हैं तुम बैर सब तज दीजिये ॥ ४९ ॥ बैर सबसे हम तजा अर्हन्त का शरणा लिया। श्री सिद्ध साधु की शरण सर्वज्ञ के मत चित दिया ॥ यों भाष पिहितास्रव गुरुन ढिंग जैन दीक्षा आदरी । कर लौंच तज के सोच सबने ध्यान में दृढ़ता धरी ॥५०॥ (चौपाई) जेठ मास लू ताती चले, सूखे सर कपिगण मद गरौँ । ग्रीष्मकाल शिखर के सीस, धरो आतापन योग मुनीश ॥ ५१ ॥
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