________________
[३३१
बारहमासा वज्रदन्त ]
सो होय प्रेत पिशाच भूत रु ऊत शुभगति टार के। कुल आपने की रीति चालो राजनीति विचार के ॥३९॥
(चौपाई) हे मतिवन्त कहा तुम कही, प्रलय पवन की वेदन सही। धारी मच्छ कच्छ की काय, सहे दुःख जलचर परजाय ।।४० ।।
(गीत छन्द) पाय पशु परजाय पर बस रहे सींग बधाय के। जहाँ रोम-रोम कम्पे मरे तन तर काय के ॥ फिर गेर चाम उबेर स्वान सिचना मिला श्रोणित पिया। तुमरी समझ सोई समझ हमरी हमें नृपपद क्यों दिया॥४१॥
(चौपाई) चैत लता मदनोदय होय, ऋतु बसन्त में फूले सोय। तिनकी इष्ट गन्ध के जोर, जागे काम महाबल फोर ।।४२ ॥
(गीत छन्द) फोर बल को काम जागै लेय मनपुर छीन ही। फिर ज्ञान परम निधान हरि के करे तेरा तीन ही॥ इतके न उतके तब रहै गये कुगति दोऊ कर झारि के। कुल आपने की रीति चालो राजनीति विचार के ॥४३॥
(चौपाई) ऋतु बसन्त वन में नहिं रहें, भूमि पाषाण परीषह सहें। जहाँ नहिं हरित काय अंकूर, उड़त निरन्तर अह-निशि धूर ॥४४॥
(गीत छन्द) उड़े वन की धूरि निशि-दिन लगें कांकर आय के। सुन शब्द प्रेत प्रचण्ड के काम जाय पलाय के॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org