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[ वृहद् आध्यात्मिक पाठ संग्रह उदधि पी नहिं भया तिरपत ओस पी कै दिन जिया। तुमरी समझ सोई समझ हमरी हमें नृपपद क्यों दिया॥३३॥
(चौपाई) माघ सधैं न सुरन ते सोय, भोग भूमियन तैं नहिं होय। हर-हरि अरु प्रति हरि से वीर, संयम हेत धरें नहिं धीर ॥३४॥
(गीत छन्द) संयम कूँ धीरज नहिं धरें नहिं टरे रण में युद्ध । जो शत्रुगण गजराज कूँ दलमले पकर विरुद्ध तूं। पुनि कोटि सिल मुद्गर समानी देय फेंक अपार के। कुल आपने की रीति चालो राजनीति विचार के॥३५॥
(चौपाई) बंध योग उद्यम नहिं करें, एतो तात कर्मफल भरें। बाँधे पूरवभव गति जिसी, भुगतें जीव जगत में तिसी ॥३६॥
(गीत छन्द) जीव भुगतें कर्म फल कहो कौन विधि संयम धरैं। जिन बंध जैसा बाँधियो तैसा ही सुख-दुख सो भएँ । यो जान सबको बँध में निर्बध का उद्यम किया। तुमरी समझ सोई समझ हमरी हमें नृपपद क्यों दिया॥३७॥
(चौपाई) फागुन चाले शीतल वायु, थर-थर कम्पे सबकी काय। तब ही बंध विदारण हार, त्यागें मूढ़ महाव्रत सार ॥३८॥
(गीत छन्द) सार परिग्रह व्रत विसारें अग्नि चहुँदिशि जारहीं। करें मूढ़ सीत वितीत दुर्गति गहें हाथ पसारहीं।
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