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[ वृहद् आध्यात्मिक पाठ संग्रह
फिर काललब्धि उद्योत होय सुहोय यों मनथिर किया । तुम समझ सोई समझ हमरी हमें नृपपद क्यों दिया ॥ २१ ॥
(चौपाई) कार्तिक में सुत करें विहार, काँटे - काँकर चुभें अपार । मारें दुष्ट खैच के तीर, फाटे उर थरहरे शरीर ॥ २२ ॥ (गीत छन्द)
थरहरे सगरी देह अपने हाथ काढ़त नहिं बनें । नहिं और काहू से कहें तब देह की थिरता हनें ॥ कोई खेंच बाँधे थम्भ से कोई खाय आंत निकार के । कुल आपने की रीति चालो राजनीति विचार के ॥२३ ॥ (चौपाई)
पद-पद पुण्य धरा में चलें, काँटे पाप सकल दलमलें । क्षमा ढाल तल धरें शरीर, विफल करें दुष्टन के तीर ॥ २४ ॥ ( गीत छन्द)
कर दुष्ट जन के तीर निष्फल दयाकुंजर पर चढ़े। तुम संग समता खड्ग लेकर अष्टकर्मन से लड़ें ॥ धनि धन्य यह दिनवार प्रभु तुम योग का उद्यम किया। तुम समझ सोई समझ हमरी हमें नृपपद क्यों दिया ॥ २५ ॥ (चौपाई)
अगहन मुनि तटनी तट रहें, ग्रीष्म शैल शिखर दुख सहें । पुनि जब आवत पावस काल, रहे साधुजन वन विकराल ॥२६॥ (गीत छन्द)
रहें वन विकराल में जहाँ सिंह श्याल सतावहीं।
कानों में बीछू बिल करें और व्याल तन लिपटावहीं ॥
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