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[वृहद् आध्यात्मिक पाठ संग्रह तुमने तो वन के वास ही को सुक्ख अङ्गीकृत किया। तुमरी समझ सोई समझ हमरी हमें नृप पद क्यों दिया॥९॥
(चौपाई) श्रावण पुत्र कठिन वनवास, जल थल शीत पवन के त्रास। जो नहिं पले साधु आचार, तो मुनि भेष लजावे सार ॥१०॥
(गीत छन्द) लाजे श्री मुनि भेष ताः देह को साधन करो। सम्यक्तयुत व्रत पंच में तुम देशव्रत मन में धरो॥ हिंसा असत चोरी परिग्रह ब्रह्मचर्य सुधार के। कुल आपने की रीति चालो राजनीति विचार के ॥११॥
(चौपाई) पिता अङ्ग यह हमरो नाहीं, भूख-प्यास पुद्गल परछाई। पाय परीषह कबहूँ नहिं भजै, धर संन्यास मरण तन तजै ॥१२॥
(गीत छन्द) संन्यास धर तन] त® नहि डंस मसक से डरैं। रहें नग्न तन वन खण्ड में जहाँ मेघ मूसल जल परै॥ तुम धन्य हो बड़भाग तज के राज तप उद्यम किया। तुमरी समझ सोई समझ हमरी हमें नृपपद क्यों दिया॥१३॥
(चौपाई) भादों में सुत उपजे रोग, आवे याद महल के भोग। जो प्रमाद बस आसन टले, तो न दयावत तुमसे पले ॥१४॥
(गीत छन्द) जब दयाव्रत नहिं पले तब उपहास जग में विस्तरे। अर्हत और निर्ग्रन्थ की कहो कौन फिर सरधा करे॥
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