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बारहमासा वज्रदन्त ]
[३२५ हम तो पाँचों ही के भोगी भये जोगी नाहीं,
विषय कषायनि के जाल माहिं परे हैं। जो न अब हित करूँ जाने कौन गति परूँ,
सुतन बुलाके यों वचन अनुसरे हैं ॥४॥ अहो सुत जग रीति देख के हमारी नीत,
भई है उदासी वनोवास अनुसरेंगे। राज भार शीस धरो परजा का हित करो,
हम कर्म शत्रुन की फौजन Vलरेंगे। सुनत वचन तब कहत कुमार सब,
हम तो उगाल कूँ न अङ्गीकार करेंगे। आप बुरो जान छोड़ो हमें जग जाल बोड़ो, ___ तुमरे ही संग महाव्रत हम धरेंगे॥५॥
(चौपाई) सुत आषाढ़ आयो पावस काल, सिर पर गर्जत यम विकराल। लेहु राज सुख करहुँ वीनती, हम वन जाय बड़ेन की रीति ॥६॥
(गीता छन्द) जाय तप के हेतु वन को भोग तज संयम धरै। तज ग्रन्थ सब, निर्ग्रन्थ हो संसार सागर से तरें। यहि हमारे मन बसी तुम रहो धीरज धार के। कुल आपने की रीति चालो राजनीति विचार के।।७।।
(चौपाई) पिता राज तुम कीनो बौन, ताहि ग्रहण हम समरथ कौन। यह भौंरा भोगन की व्यथा, प्रगट करत कर-कङ्कन यथा ॥८॥
(गीत छन्द) यथा कर का कांगना सन्मुख प्रगट नजरा परे। त्यों ही पिता भौंरा निरखि भवभोग से मन थरहरे॥
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