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[ वृहद् आध्यात्मिक पाठ संग्रह आत्मस्थिरता मन-वच काया योग की, मुख्य रूप से रहे देह पर्यन्त हो। कितने भी उपसर्ग घोर परिषह बने, तो भी मेरी स्थिरता का ना अन्त हो। निज स्वभाव में हृदय कमल मुसकाएगा, अपूर्व अवसर ऐसा कब प्रभु आएगा ।।४।। संयम के हित होवे योग प्रवर्तना, जिन आज्ञानुसार करूँ पुरुषार्थ मैं। क्षण-क्षण घटते रहें विकल्प निमित्त के, करूँ अन्त में निज स्वरूप चरितार्थ मैं। आत्मज्ञान ही मुझे मोक्ष पहुँचाएगा, अपूर्व अवसर ऐसा कब प्रभु आएगा ।।५।। पंच विषय में राग-द्वेष कुछ हो नहीं, पंच प्रमाद न करूँ बनूँ न मलीन मैं। द्रव्य क्षेत्र औ काल भाव प्रतिबन्ध बिन, वीतलोभ बन विचलं उदयाधीन मैं। सम्यक् दर्शन ज्ञानचरित्र निभाएगा, अपूर्व अवसर ऐसा कब प्रभु आएगा।६।। क्रोध भाव हो तो मैं नायूँ क्रोध को, मान भाव यदि हो तो रहूँ विनीत हो। माया जागे तो माया को क्षय करूँ, लोभ जगे सन्तोष भाव की जीत हो॥ चार कषायों में ना मन अटकाएगा। अपूर्व अवसर ऐसा कब प्रभु आएगा ॥७॥ नग्न दिगम्बर मुण्डभाव अस्नानता, अदन्त धोवन आदि महान प्रसिद्ध हैं।
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