________________
अपूर्व अवसर ]
[३१९ परम दिगम्बर निजरस लीनो, ज्ञान-दरश थिरतामय होय। अष्ट कर्म को थान भ्रष्ट कर, शिव-संपति बिलसत है सोय ॥१३॥
(दोहा) जैसो शिव खेतहि बसैं, तैसो या तनमाहिं। निश्चयदृष्टि निहार तें, फेर रंच कहूँ नाहिं ॥१४॥
अपूर्व अवसर अपूर्व अवसर ऐसा कब प्रभु आएगा।टेक॥ यह अपूर्व अवसर मेरा कब आएगा, कब होऊँगा बाह्यान्तर निर्ग्रन्थ मैं। सब प्रकार के मोहबन्ध को तोड़कर, कब विचरूंगा महत् पुरुष के पन्थ में। भव्य दिगम्बर मुनि मुद्रा को पाएगा, अपूर्व अवसर ऐसा कब प्रभु आएगा ॥१॥ पर भावों से उदासीनता ही रहे, मात्र देह तो हो संयम हित साधना। अन्य किसी कारण से अन्य न ग्राह्य हो, हो न देह के प्रति ममत्व की भावना ॥ यह वैराग्य हृदय में जब बस जाएगा, अपूर्व अवसर ऐसा कब प्रभु आएगा ॥२॥ दर्शन मोह व्यतीत हो गया ज्ञान यह, देह भिन्न है मैं तो चेतन शुद्ध हूँ। चारित्र मोह विशेष क्षीण अनुभव करूं, मैं तो शुद्ध स्वरूप ज्ञानघन बुद्ध हूँ॥ यह दृढ़ निश्चय अन्तस्तल में छाएगा, अपूर्व अवसर ऐसा कब प्रभु आएगा ॥३॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org