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[ वृहद् आध्यात्मिक पाठ संग्रह इन तैं अतीत कोऊ आतम स्वभाव लसैं, तहाँ बसै ज्ञान शुद्ध चेतन के खन्ध में। ऐसो वीतरागदेव कह्यो है प्रकाशभेव, ज्ञानवंत पावै ताहि मूढ़ धावै ध्वंध में ॥१०॥
वीतराग बैन सो तो ऐसे विराजत है, जाके परकाश निज भास पर लहिये। सूझै षट दर्व सर्व गुण परजाय भेद, देव,गुरु,ग्रन्थ पन्थ सत्य उर गहिये। करम को नाश जामें आतम अभ्यास कह्यो, ध्यान की हुतास अरि पंकति को दहिये। खोल दृग देखि रूप अहो अविनाशी भूप, सिद्ध की समान सब तोपें रिद्ध कहिये॥११॥
राग की जुरीत सु तो बड़ी विपरीत कही, दोष की जु बात सु तो महा दु:खदाह है। इनही की संगतिसों कर्म बन्ध करै जीव, इनही की संगतिसों नरक निपात है। इनही की संगतिसों बसिये निगोद बीच, जाके दुःखदाह को न थाह कह्यौ जात है। ये ही जगजाल के फिरावन को बड़े भूप, इनही के त्यागे भवभ्रम न विलात है॥१२॥
(मात्रिक कवित्त) असी चार आसन मुनिवर के, तामें मुक्ति होन के दोय। पद्मासन खड्गासन कहिये, इन बिन मुक्ति होय नहि कोय॥
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