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सिद्ध चतुर्दशी ]
[३१७ अष्ट कर्म तैं रहित,सहित निज ज्ञान प्राण धर। चिदानन्द भगवान, वसत तिहुँ लोक शीश पर। विलसत सुजसु अनन्त, सन्त ताका नित ध्यावहि।
वेदहि ताहि समान, आयु घट माहि लखावहि॥ इम ध्यान करहि निर्मल निरखि, गुण अनन्त प्रगटहिं सरव। तस पद त्रिकाल वन्दत भविक, शुद्ध सिद्ध आतम दरव ॥७॥
ज्ञान उदित गुण उदित, मुदित भइ कर्म कषायें। प्रगटत पर्म स्वरूप,ताहिं निज लेत लखायें।। देत परिग्रह त्याग, हेत निह● निज मानत।
जानत सिद्ध समान, ताहि उर अन्तर ठानत ॥ सो अविनाशी अविचल दरब, सर्व ज्ञेय ज्ञायक परम। निर्मल विशुद्ध शाश्वत सुथिर, चिदानन्द चेतन धरम ॥८॥
(कवित्त) अरे मतवारे जीव, जिनमत वारे होहु; जिनमत आन गहो, जिन मत छोरकैं। धरम न ध्यान गहो, धरमन ध्यान गहो; धरम स्वभाव लहो, शकति सुफोरकैं॥ परसों न नेह करो, परम सनेह करो; प्रगट गुण गेह करो, मोह दल मोरकैं। अष्टादश दोष हरो, अष्ट कर्म नाश करो; अष्ट गुण भास करो, कहूँ कर जोर कैं॥९॥
वर्ण में न ज्ञान नहिं ज्ञान रस पंचन में, फर्स में न ज्ञान नहीं ज्ञान कहूँ गन्ध में। रूप में न ज्ञान नहीं ज्ञान कहुँ ग्रन्थन में, शब्द में न ज्ञान नहीं ज्ञान कर्म बन्ध में।
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