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[वृहद् आध्यात्मिक पाठ संग्रह कर्म को कलङ्क अङ्ग पंक ज्यों पखार हरयो, धार निजरूप परभाव त्याग दीजिये। थिरता के सुख को अभ्यास कीजे रैन दिना, अनुभो के रस को सुधार भले पीजिये। ज्ञान को प्रकाश भास मित्र की समान दीसै, चित्र ज्यों निहार चित ध्यान ऐसो कीजिये ॥३॥ भावकर्म नाम राग-द्वेष को बखान्यो जिन, जाको करतार जीव भर्म सङ्ग मानिये। द्रव्य कर्म नाम अष्ट कर्म को शरीर कह्यो, ज्ञानावर्णी आदि सब भेद भलै जानिये ॥ नो करम संज्ञाः शरीर तीन पावत हैं, औदारिक वेक्रीय आहारक प्रमानिये। अन्तरालसमै जो आहार बिना रहै जीव, नो करम तहाँ नाहिं याही तें बखानिये ॥४॥
(सवैया तेईसा) लोपहि कर्म हरै दुःख भर्म सुधर्म सदा निजरूप निहारो। ज्ञान प्रकाश भयो अघनाश, मिथ्यात्व महातम मोह न हारो॥ चेतनरूप लखो निज मूरत, सूरत सिद्ध समान विचारो। ज्ञान अनन्त वहै भगवन्त, वसै अरि पंकतिसों नित न्यारो ॥५॥
(छप्पय छन्द) त्रिविध कर्म तें भिन्न, भिन्न पररूप परसतें। विविध जगत के चिह्न, लखै निज ज्ञान दरसरौं । बसै आप थलमाहि, सिद्ध सम सिद्ध विराजहि।
प्रगटहि परम स्वरूप, ताहि उपमा सब छाजहि॥ इह विधि अनेक गुण ब्रह्ममहिं, चेतनता निर्मल लसै। तस पद त्रिकाल वन्दत भविक, शुद्ध स्वभावहि नित बसैं॥६॥
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