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सिद्ध चतुर्दशी
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दर्व कर्म पुद्गलमयी, कर्ता पुद्गल तास । ज्ञानदृष्टि के होत ही, सूझे सब परकाश ॥ २१ ॥ जोलों जीव न जान ही, छहों काय के वीर । तौलों रक्षा कौन की, कर है साहस धीर ॥२२ ॥ जानत है सब जीव को, मानत आप समान। रक्षा यातें, करत है, सब में दरशन ज्ञान ॥२३॥ अपने-अपने सहज के, कर्ता हैं सब दर्व । यहै धर्म को मूल है, समझ लेहु जिय सर्व ॥२४॥ 'भैया' बात अपार है, कहै कहाँलों कोय | थोरे ही में समझियो, ज्ञानवंत जो होय ॥२५ ॥
सिद्ध चतुर्दशी (दोहा)
परमदेव परणाम कर, परम सुगुरु आराध । परम ब्रह्म महिमा कहूँ, परम धरम गुण साध ॥ (कवित्त) आतम अनोपम है दीषै राग द्वेष बिना, देखो भव्य जीव ! तुम आप में निहारकै । कर्म को न अंश कोऊ भर्म को न वंश कोऊ, जाकी शुद्धताई में न और आप टार कैं ॥१॥ जैसो शिव खेत बसै तेसो ब्रह्म इहाँ सैं। इहाँ उहाँ फेर नाहि देखिये विचार कैं । जेई गुण सिद्ध मांहि तेई गुण ब्रह्म मांहि, सिद्ध ब्रह्म फेर नाहिं निश्चय निरधार कैं ॥२॥ सिद्ध के समान है विराजमान चिदानन्द, ताही को निहार निजरूप मान लीजिये ।
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