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[वृहद् आध्यात्मिक पाठ संग्रह ईश्वर की जिय जात है, ज्ञानी तथा अज्ञान। जो इह नै कर्ता कहो, तो हूँ बात प्रमान ॥८॥ अज्ञानी कर्ता कहै, तौ सब बने बनाव। ज्ञानी हूँ जड़ता करै, यह तौ बने न न्याव ॥९॥ ज्ञानी करता ज्ञान को, करैं न कहुँ अज्ञान। अज्ञानी जड़ता करें, यह तौ बात प्रमान ॥१०॥ जो कर्ता जगदीश है, पुण्य पाप किहँ होय। सुख दुःख काको दीजिये, न्याय करहुँबुध लोय ॥११॥ नरकन में जिय डारिये, पकर पकरकें बाँह । जो ईश्वर करता कहो, तिनको कहा गुनाह ॥१२॥ ईश्वर की आज्ञा बिना, करत न कोऊ काम। हिंसादिक उपदेश को, कर्ता कहिये राम ॥१३॥ कर्ता अपने कर्म को, अज्ञानी निर्धार । दोष देत जगदीश को, यह मिथ्या आचार ॥१४॥ ईश्वर तौ निर्दोष है, करता भुक्ता नाहिं। ईश्वर को कर्ता कहै, ते मूरख जग मांहि ॥१५॥ ईश्वर निर्मल मुकुरवत, तीन लोक आभास। सुख सत्ता चैतन्यमय, निश्चय ज्ञान विलास ॥१६॥ जाके गुन तामें बसें, नहीं और में होय। सूधी दृष्टि निहार तें, दोष न लानें कोय ॥१७॥ वीतराग बानी विमल, दोष रहित तिहुँ काल। ताहि लखै नहिं मूढ़ जन, झूठे गरु के बाल ॥१८॥ गुरु अन्धे शिष्य अन्धकी, लखैन बाट कुबाट। बिना चक्षु भटकत फिरै, खुल्न हिये कपाट ॥१९॥ जोलों मिथ्यादृष्टि है, तोलों कर्ता होय। सो हू भावित कर्मको, दर्वित करै न कोय ॥२०॥
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