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कर्ता - अकर्ता पच्चीसी ]
ज्यों जल आवत मूंदिये, सूखें सरवर - पानि । तैसे संवर के किये, कर्म- निर्जरा जानि ॥२२॥ ज्यों बूटी संयोग तैं, पारा मूर्च्छित होय । त्यों पुद्गलसों तुम मिले, आतम-शक्ति समोय ॥२३ ॥ मेलि खटाई माँजिये, पारा परगटरूप । शुक्लध्यान अभ्यास तैं, दर्शन - ज्ञान अनूप ॥ २४ ॥ कहि उपदेश बनारसी, चेतन अब कछु चेत । आप बुझावत आपको, उदय करन के हेत ॥२५ ॥
कर्त्ता अकर्त्ता पचीसी (दोहा)
जो ईश्वर करता कहैं,
कर्मन को कर्त्ता नहीं, धरता सुद्ध सुभाय । ता ईश्वर के चरन को, बन्दौं शीश नवाय ॥१॥ भुक्ता कहिये कौन । जो करता सो भोगता, यहै न्याय को भौन ॥२ ॥ दुहूँ दोष तैं रहित है, ईश्वर ताको नाम । मन वच शीस नवाइ कैं, करूँ ताहि परणाम ॥३॥ कर्मन को करता वहै, जापै ज्ञान न होय । ईश्वर ज्ञानसमूह है, किम कर्ता है सोय ॥४ ॥ ज्ञानवंत ज्ञानहिं करै, अज्ञानी अज्ञान । जो ज्ञाता कर्ता कहै, लगै दोष असमान ॥५ ॥ ज्ञानीपै जड़ता कहा, कर्ता ताको होय | पण्डित हिये विचार कै, उत्तर दीजे सोय ॥६॥ अज्ञानी जड़तामयी, करै अज्ञान निशङ्क । कर्ता भुगता जीव यह, यों भाखेँ भगवन्त ॥७ ॥
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