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ज्ञान पच्चीसी ]
[३११ प्रश्न- शब्द अगोचर वस्तु है, कछू कहौं अनुमान।
जैसी गुरु आगम कही, तैसी कहै सुजान ।।७।। उत्तर-शब्द अगोचर कहत है, शब्द माहिं पुनि सोय।
स्याद्वाद शैली अगम, बिरला बूझै कोय॥८॥ प्रश्न-वह अरूप है रूप में, दुरिकै कियो दुराव।
जैसें पावक काठ में, प्रगटे होत लखाव ॥९॥ उत्तर- हुतो प्रगट फिर गुपतमय, यह तो ऐसे नाहिं।
है अनादि ज्यों खानि में, कञ्चन पाहन माहिं॥१०॥
ज्ञान-पच्चीसी सुर-नर-तिरियग-योनि में, नरक-निगोद भ्रमन्त। महामोह की नींद सों, सोये काल अनन्त ॥१॥ जैसें ज्वर के जोर सों, भोजन की रुचि जाय। तैसें कुकरम के उदय, धर्म-वचन न सुहाय ॥२॥ लगैं भूख ज्वर के गए, रुचि सों लेय अहार। अशुभ गये शुभ के जगे, जानें धर्म विचार ॥३॥ जैसें पवन झकोर तें, जल में उठै तरंग। त्यों मनसा चंचल भई, परिग्रह के परसंग ॥४॥ जहाँ पवन नहिं संचरै, तहाँ न जल-कल्लोल। त्यों सब परिग्रह त्याग तें, मनसा होय अडोल ॥५॥ ज्यों काहू विषधर डसै, रुचिसों नीम चबाय। त्यों तुम ममतासों मड़े, मगन विषय-सुख पाय ॥६॥ नीम रसन परसैं नहीं, निर्विष तन जब होय। मोह घटे ममता मिटैं, विषय न वांछ कोय ॥७॥ ज्यों सछिद्र नौका चढ़े बूड़हि अन्ध अदेख। त्यों तुम भव-जल में परे, बिन विवेक धर भेख ॥८॥
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