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[वृहद् आध्यात्मिक पाठ संग्रह गुरु बोले समकित बिना, कोऊ पावै नाहिं। सबै रिद्धि इक ठौर है, काया नगरी माहिं ॥९॥ काया नगरी जीव नृप, अष्ट कर्म अति जोर। भाव अज्ञान दासी रचे, पगे विषय की ओर ॥१०॥ विषय बुद्धि जहाँ है नहीं, तहाँ सुमति की चाह। जो सुमती सो कुल त्रिया, इहि याको निरवाह ॥११॥ आप पराये वश परे, आपा डारयो खोय। आपा आपु न जानही, कहो आपु क्यों होय ॥१२॥ आप न जानें आप को, कौन बतावन हार। तबहि शिष्य समकित लह्यो, जान्यो सबहि विचार ॥१३॥ इहि गुरु शिष्य चतुर्दशी, सुनहु सबै मन लाय। कहै दास भगवंत को , समता के घर आय॥१४॥
प्रश्नोत्तर दोहा प्रश्न- कौन वस्तु वपु मांहि है, कहँ आवै कहँ जाय।
ज्ञानप्रकाश कहा लखें, कौन ठौर ठहराय॥१॥ उत्तर-चिदानन्द वपु मांहि है, भ्रममहिं आवै जाय।
ज्ञान प्रगट आपा लखें, आप माहिं ठहराय ॥२॥ प्रश्र-जाको खोजत जगतजन, कर कर नाना भेष।
ताहि बतावहु, है कहा, जाको नाम अलेष ॥३॥ उत्तर- जग शोधन कछु और को, वह तो और न होय।
वह अलेख निरमेष मुनि,खोजन हारा सोय ॥४॥ प्रश्न- उपजै विनसै थिर रहै, वह अविनाशी नाम।
भेद जुगति जग में लसैं, बसैं पिण्ड ब्रह्मण्ड ॥५॥ उत्तर-उपजै बिनसे रूप जड़, वह चिद्रूप अखण्ड।
जोग जुगति जग में लसैं, बसैं पिण्ड ब्रह्मण्ड ॥६॥
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