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गुरुशिष्य चतुर्दशी ]
[३०९ सब आगम को सार ज्यों, सब साधन को धेव। जाको पूर्जे इन्द्र सो, सो हम पायो देव ॥४८ ।। सोहं सोहं नित जपै, पूजा आगमसार । सतसंगति मैं बैठना, यहै करै व्यवहार ॥४९ ।। अध्यातम पंचाशिका, माहिं कह्यो जो सार। 'द्यानत' ताहि लगे रहो, सब संसार असार ।।५० ।।
गुरुशिष्य चतुर्दशी
(दोहा) कहूँ दिव्यध्वनि शिष्य मुनि, आयो गुरु के पास। पूज्य सुनहु इक बीनती, अचरज की अरदास ॥१॥ आज अचंभौ मैं सुन्यो, एक नगर के बीच। राजा रिपु में छिप रह्यो, राज करें सब नीच ॥२॥ नीच सु राज्य करै जहाँ, तहाँ भूप बलहीन। अपनो जोर चलै नहीं, उनही के आधीन ॥३॥ वे याकी मानें नहीं, यह वासों रसलीन। सत्तर कोड़ाकोडिलों, बन्दीखाने दीन ॥४॥ बन्दीवान समान नृप, कर राख्यो उहि ठौर। वाको जोर चलें नहीं, उनही के सिरमौर ॥५॥ वे जो आज्ञा देत हैं, सोइ करें यह काम। आप न जानें भूप मैं, ऐसी है चित भ्राम ॥६॥ उनकी वेरीसों रचे, तजि निज नारि निधान। कहो स्वामि सो कौन वह, जिनको ऐसे ज्ञान ॥७॥ कौन देश, राजा कवन, को रिपु, को कुल नारि। को दासी कहु कृपा करि, याको भेद विचारि ॥८॥
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