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_ [वृहद् आध्यात्मिक पाठ संग्रह आप आप को सिद्ध स्वरूप, आराधै हुव सिद्ध अनूप। बाती ज्यों दीपक को पाय, आपहि दीपरूप हो जाय॥१४॥ आप आप ही को आराधि, होय परम आतम निरुपाधि । घिसत बाँस आप को जेम, अग्निस्वरूप होय यह नेम ॥१५॥ ऐसे वचन अगोचर रूप, जो अनुभवै परम गुण भूप। पावै अचल सिद्धपद सोय, जहँ ते फेर खलित नहिं होय ॥१६॥ जो यह आतम आपा माहिं, चाहे ज्ञान मात्र पर नाहिं। तो बिन जतन परम पद धनी, ज्ञानी होय नियत हम मनी॥९७॥ स्वप्ने में निज मरनो वृथा, माने मूढ़ भरमतें यथा। त्यों जाग्रत निज माने नाश, निश्चय आप परम गुण राश ॥९८॥ अक्षातीत अगोचर बैन, मूरत बिन कल्पना न एन। चिदानन्दमय जान सुजान, निज में कर निज सो गुणवान ।।९९ ॥ आगमज्ञानी शिव नहिं लहै, जो तन में आतम बुधि वहै। आतम में आतम बुधि जास, तो श्रुत शून्य लहै शिव वास॥१०० ॥ पराधीन सुख स्वाद विरक्त, जो तू होय स्वरूपासक्त। तो तू ही अखण्ड सुखरूप, आप अनुभवै चेतन भूप ॥१०१ ॥ जो अभ्यासैं सुख तें ज्ञान, दु:खकर सो नश जाय निदान। दुःख कारण में तत्पर होय, तातें मुनि स्वरूप निज लोय ॥१०२ ॥
(गीता छन्द) अखिल भुवन पदार्थ अब प्रकाशनैक प्रदीप है। आनन्द सीमारूढ़ आप उपाधि के न समीप है। परम साधु-सुबुद्धि लखवे जोग्य का पर्यन्त है। इम शुद्ध निजकर निज विलोकहु जो सदा जयवंत है॥१०३॥ यह ध्येय साधारण कहो, धर्म शुक्ल सुध्यान कों। तिन शुद्ध स्वामि विशेष जानों देख सूत्र बखान कों॥ अधिकार शुद्धोपयोगरूप विचार यह निज हित भनों। कछु 'भागचन्द' विचार के अनुसार ज्ञानार्णव तनों ॥१०४॥
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