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अध्यात्म पंचासिका
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अध्यात्मपंचासिका
(दोहा) आठ कर्म के बन्ध तैं, बँधैं जीव भववास। कर्म हरे सब गुण भरे, नमो सिद्धि सुखरास ॥१॥ जगतमाहिं चहुँगति विर्षे जन्म-मरणवश जीव। मुक्ति माहिं तिहुँकाल मैं, चेतन अमर सदीव॥२॥ मोक्ष माहिं सेती कभी, जग मैं आवै नाहिं । जग के जीव सदीव ही, कर्म काट शिव जाहिं ॥३॥ पूर्व कर्म उद्योग तें, जीव करैं परिणाम। जैसैं मदिरा पान तैं, करै गहल नर काम ॥४॥ तारौं बाँधै कर्म को, आठ भेद दुःखदाय। जैसैं चिकने गात मैं, धूलिपुञ्ज जम जाय ॥५॥ फिर तिन कर्मन के उदय, करें जीव बहु भाय। फिर के बाँधै कर्म को, यह संसार सुभाय ॥६॥ शुभ भावन तैं पुण्य है, अशुभ भाव तैं पाप । दुहूँ आछादित जीव सो, जान सकै नहिं आप ॥७॥ चेतन कर्म अनादि के, पावक काठ बखान। छीर-नीर तिल-तेल, ज्यों खान कनक पाखान ॥८॥ लाल बँध्यो गठड़ी विर्षे, भानु छिप्यो घन माहिं। सिंह पींजरे मैं दियो, जोर चलै कछु नाहिं॥९॥ नीर बुझावै आग को, जलै टोकनी माहिं। देह माहिं चेतन दुःखी, निज सुख पावै नाहि॥१०॥ यदपि देहसों छुटत है, अन्तर तन है सङ्ग। ताहि ध्यान अग्नी दहै, तब शिव होय अभङ्ग ॥११॥
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