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आत्मबोध ]
[३०३ निज कर निज को बंधन करै, निज ही निज को शिव सुख भरै। ता” आप आप को होय, रिपु गुरु अन्य नहीं पुन कोय ॥८१ ॥ जान आप ते न्यारी काय, तन ते भिन्न लखै चिदराय। तब निसंक हो त्यागे अङ्ग, जैसे वस्त्र घिनावन रङ्ग॥८२॥ अन्तरङ्ग निज रूप निहार, पुन शरीर को बाह्य विचार। तिनके भेद-ज्ञान में मग्न, चिरौं सो निज निश्चय निज लग्न ॥८३॥ जिनने निकट लखो निज तत्त्व, प्रथम लखें ते जग के मित्त। तातें जब शांतामृत चखै,लोष्ठ समान भाखै तब सबै ॥८४॥ तनते भिन्नहि आतमराम, जो यै सुनत कहत वसु जाम। तो मैं तन ममत्व नहि तर्जे, यावत भेद-ज्ञान नहि भजै ॥८५ ॥ तन सो भिन्न जान निज रूप, ऐसे अनुभव करहू अनूप । जैसे फेरहु स्वप्नमाहि, तन में निजमति उपजे नाहिं ।।८६ ॥ क्रिया शुभाशुभ दोई अन्ध, कारण पुण्य-पाप विधि बन्ध। तिन बिन निज परिणति शिव हेत, ताते त्यागो क्रिया सुचेत ॥८७॥ प्रथम असंयम त्याग हु बुद्ध, संयम चरण होय तब शुद्ध। फिर स्वरूप कों पाय अनल्प, त्यागे संयम चरण विकल्प ॥८८॥ जात लिंग मुनि श्रावकद्वन्द, देहाश्रित वरते भ्रम इन्द। तनु संतति भव ताते मुनी, द्रव्यलिंग में ममता धुनि ॥८९॥
पङ्गु अन्ध कन्ध आरूढ़, सनयन ताहि लखै जिमि मूढ़। त्यों सठ आतम के संयोग, अङ्ग माहि जाने उपयोग ॥९० ॥ पुंगल नेत्र अन्ध के माहिं, लखे भेद ज्ञानी जिमि नाहिं। त्यों ज्ञानी तन में निज ज्ञान, जाने नाहिं भिन्न पहिचान ॥११॥ बहिरातम जन मोक्ष न लहै, जो पै जगैं पाठ श्रुत कहै। ज्ञानी सुप्त तथा उन्मत्त, शिव पावे जाने जो तत्त्व ॥९२ ॥ मत्तोन्मत्त अवस्था बीच, भूले निज स्वरूप जिमि नीच। त्यों ज्ञानी कहुँ भूलें नाहिं, आपा सकल अवस्था माहिं ॥१३॥
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