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[ वृहद् आध्यात्मिक पाठ संग्रह भाख्यो श्री जिन भाखो जेम, मूरख तत्त्व न जाने केम। तारौं पर समझावन काज, उद्यम वृथा हमारे साज ॥६८॥ जो उपदेश नहीं मैं सोय, मो स्वरूप पर ग्राह्य न होय। ताते पर संबोधन तनों, आग्रह वृथा हमारो भनो ॥६९ ॥ अज्ञानी अन्तर द्रग बिना, पर में पुष्ट होत निशदिना। रहित बाह्य भ्रम ज्ञानी जीव, तुष्ट आप में आप सदीव ॥७० ॥ पावत मन-वच-तन में धार, आत्मबुद्धि तावत संसार। इनतें भेदज्ञान जब करै, तब ही संसारार्णव तरै ॥७१ ॥ जीरन रक्त पुष्ट सुच जोय, वस्त्र होत जिमि पुरुष न होय। त्यों जीर्णादि होत वपु रूप, नहिं पुन आतम चिद् गुन भूप ।।७२ ।। चल भी अचल तुल्य भासंत, जाके ज्ञान माहिं अत्यन्त। ज्ञान योग चलत बिन सोय, शिवपद पावै निश्चल होय ॥७३॥
औदारिक तैजस कार्माण, इन त्रय लखें रूप निज ज्ञान। जोलों भिन्न न जानो सोय, तोलों बन्ध अभाव न होय ॥७४॥ पूरन गलन स्वभावी अणू, तिन बहु स्कंध रचित सब तनू। ताहि अनादि भरम ते मूढ़, जाने तत्त्व न आगम गूढ़ ।।७५ ।। नियत लहे मुनि सो शिव धाम, जाकी थिति ध्रुव आतमराम। ताको मुक्ति न कबहूँ होय, जाको आतम थिति नहिं जोय ॥७६ ॥ मृदु कठोर थिर दीरघ थूल, जीरण शीरण लघु गुरु थूल इम तन रूप लखें सठ आप, लखत न आतम ज्ञानकलाप ॥७७॥ लौकिकजन सङ्ग ते बच कहे, चपल चित्र तहँ मनभ्रम वहे। ताते ज्ञानीजन सर्वङ्ग, त्यागो लौकिकजन परसङ्ग ॥७८ ॥ नग्र कन्दर पुर मन्दिर बीच, निज-निज राज होय जन दीच। ज्ञानी सर्व अवस्था विर्षे, निज निवास निज ही में दीखें ॥७९॥ देह माँहि जो आतम आन,तन सन्तति को कारण जान। जो चिद्गुण में निजबुध सोय, तन संतति नाशन मल धोय ।।८० ॥
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