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आत्मबोध
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बल रूपायु धनादिक तनी, प्राप्ती चहें अज्ञानी पनी । ज्ञानी तिनके विरकत दशा, चाहत प्रगट आप में बसा ॥५५ ॥ पर में अहं बुद्धि कर रूढ़, निज को बाँधे निजच्युत मूढ़ । आप माहिं आप बुधि धार, ज्ञानी करहि बन्ध विध क्षार ॥ ५६ ॥ सहित त्रिलिंग देह मूर्तीक, ताहि अजान माने आत्मीक । ज्ञानी पुनि माने निज रूप, लिंग सङ्ग वर्जित चिद्रूप ॥५७॥ अभ्यासे जानो पुन ठीक, निर्णय कियो तत्त्व आत्मीक । सो अनादि भ्रमकारण पाय, मुनिहू के जु खलित हो जाय ॥५८ ॥ जो दिखाय सो चेतन नाहिं, चेतन नहिं आवे द्रग माहिं । तातें विफल अन्य रागादि, ध्याऊँ मैं स्वरूप आल्हादि ॥५९ ॥ त्यजन ग्रहण बाहिज सठ करें, ज्ञानी अन्तर तें अनुसरें । त्यजन ग्रहण बहिरन्तर दोय, शुद्धातम न करैं कछु सोय ॥६०॥ वचन काय तें न्यारा जान, मन से करैं आत्म का ध्यान। वचन देह से कारज और, करैं नहीं पुनि मन से दौर ॥ ६१ ॥ अज्ञानी जन को संसार, भासै सुख प्रतीत भण्डार । तिनहि कहाँ सुख कहाँ विश्वास, भासे जिन पायौ निज बास ॥६२ ॥ निज विवेक बिन अन्य विचार, ज्ञानी करैं न छिन मन मार। जो विवेक कछु कारज करै, सो वच तन तें बिन आदरै ॥६३ ॥ अक्ष विषय मय जो मूर्तीक, सो स्वरूपते पर यह ठीक । निजानन्द निर्भय चैतन्य, जोतिमई मम रूप न अन्य ॥६४॥ अन्तर दुःख बाहिज सुख तिन्हें, योगाभ्यास उद्यमी जने । इनते उल्टी तिनकी चाल, जिन पायो निज योग रसाल ॥६५ ॥ सो जाने सोई उच्चरे, सोई सुने ध्यान तसु धरै । जातैं होय भरम तम नाश, पावे आप आप में वास ॥ ६६ ॥ विषयन में कछु नाहीं सोय, जाते स्वहित जीव के होय । तो पुनि प्रीति करैं तिन माहिं, अज्ञानी उर समता नाहिं ॥६७॥
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