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________________ ३००] [वृहद् आध्यात्मिक पाठ संग्रह सो ही मैं, मैं सो ही शुद्ध, इम अभ्यासत सदा सुबुद्ध। कर विकल्प वासना तास, पावे आप आप में वास ॥४२॥ करत अज्ञानी जहँ प्रीत, सो सो आपद-धाम समीत। जा पद ते पुनि यह डर खाय, निजानन्द मन्दिर सो आय॥४३॥ इन्द्रिय चपल चित्त को रोक, होय प्रसन्न अनुभवी लोक। तत्क्षण स्वसंवेद्य चिद्रूप, भासै सो परमेष्ठि स्वरूप ॥४४॥ जो सिद्धातम मैं हूँ सोय, जो मैं सो परमेश्वर होय। मों को पर न उपासन जोग, पर कर मैं न उपासन जोग ।।४५ ॥ करण विषय हरि मुखतेंखेंच, निज को निजकर बिन भ्रम पेंच। मैं निज में थिर भयो अटल्ल, चिन्दानन्दमय विर्षे असल्ल॥४६॥ या प्रकार तनतें जो भिन्न, लखें न भ्रम बिन चेतन चिह्न । सो अति तीव्र कोटि तप करें, तो भी तसु विधि बंध न झ॥४७॥ जो आप पर भेद-विज्ञान, सुधा-पान आनन्दित वान। देहजनित क्लेशनते सोय, तप में खेद खिन्न नहिं होय ॥४८॥ रागादिक कलंक को धोय, जाको चित अति निर्मल होय। सो ही लखें आपकों आप, अन्य हेतु है नाहिं कदापि॥४९॥ तत्त्वरूप निर्विकल्प चित्त, सहित विकल्प अतत्त्व सुमित्त। ता” तत्त्वसिद्धि के अर्थ, निर्विकल्प चित करहु समर्थ ।।५० ॥ जो निज चित्त अज्ञान समेत, सो नहिं निज अनुभव हेत। सो ही जान वासना लीन, लखै परमपद आप प्रवीन ॥५१॥ जो मन होय मोह में मग्न, चंचल रागादिकतें भग्न। - मुनि सो मन निज में थाप, तत्क्षण हनें राग संताप ॥५२॥ मूख प्रीति धाम तन जोय, तातें भिन्न सुबुद्धि ते होय। चिदानन्द सागर में मग्न, करे राग संतति सब भग्न ॥५३॥ निज भ्रम ते उपजो दुःख जोय, सो सुज्ञान ही ते क्षय होय। जो निज : रहित जन दीन, ते तपहू तें करे न छीन ।।५४॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003172
Book TitleBruhad Adhyatmik Path Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaykumar Devlali
PublisherKundkundswami Swadhyaya Mandir Trust Bhind
Publication Year2008
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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