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आत्मबोध ]
[२९९ ज्यों सांकल में अहि बुधि नशै, भ्रमबिन क्रिया सकल तब लसैं। त्यों देहादिक माहीं अबै, अहं बुद्धि विनशी मम सबै ॥२९॥ लिंग पुरुष नारी पुन क्लीव, एक दोय बहु वचनन जीव। जारौं मैं अवाच गुन धाम, ज्ञाता निजकर निज में राम ॥३०॥ मैं सोयो जाके बिन ज्ञान, जग्यो ततक्षण जाहि पिछान। मो स्वरूप मम अक्षातीत, स्वसंवेद्य चैतन्य पुनीत ॥३१॥ परम ज्योति निज तत्त्व रसाल, जाहि विलोकत ही ततकाल। विनशैं रागादिक अति घोर, ता” अरि प्रिय कोऊ न मोर ॥३२॥ मो स्वरूप देखो नहिं जोय, सो जन मम अरि प्रिय नहिं होय। जिहि स्वरूप देखो मम सही, सो भी शत्रु मित्र मो नहीं ॥३३॥ पूर्व अज्ञान क्रिया जे सबै, नानाविध सो भासत अबैं। इन्द्रजालवत मिथ्यारूप, जानो हम जिय चिह्न चिद्रूप ॥३४॥ शुद्ध प्रसिद्ध आत्मा जोय, ज्योति स्वरूप सनातन सोय। सो ही मैं तातै निज धाम, अवलोकों अच्युत निज राम ॥३५॥ बहिरातमता तज के वीर, अन्तर दृगतें ध्यावें धीर । रहित कल्पना जाल विशुद्ध, परमातम ज्ञानी अविरुद्ध ॥३६॥ बन्ध मोक्ष ये दोई तत्त्व, है भ्रम अभ्रण कारण तत्त्व। बन्ध जान पर सङ्गति दोष, भेद-ज्ञान तें उपजे मोक्ष ॥३७॥ चरन अलौकिक ज्ञानी तनों, अद्भुत कायै जात सुभनों। अज्ञानी जिहि बाँधे कर्म, तहँ ज्ञानी साधे शिव शर्म ॥३८॥ जो भव-वन में भ्रमत अत्यन्त, मैं पूरब दुःख लहो अनन्त । सो निज पर को भेद-विज्ञान, पाये बिन यह निश्चय जान ॥३९॥ जो मैं ज्ञान प्रदीपक सार, लोकालोक प्रकाशन हार। तो क्यों जगवासी जन दीन, डूबे भव कदमि में हीन ॥४०॥ निज में निजकर आप स्वरूप, अनुभव करिये सदा अनूप। तातें निज को जानन हेत, परमें विफल प्रयास समेत ॥४१ ॥
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