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[वृहद् आध्यात्मिक पाठ संग्रह इम निजतन में निज जिय जान, परतन में पर जीव पिछान। या ही बुद्धि ठगो संसार, जड़ में चेतन तत्त्व निहार ॥१६॥ ताही में निज भिन्न अत्यन्त, पर सुत दारादिक बहु भन्त। मानत मूढ़ तिनहि आपने, मोह-ज्वर व्याकुल मति घने ॥१७॥ चेतन और अचेतन द्रव्य , तिन मानी के अपने सर्व। विनसन उपजनादि पर रूप, निज ही के जानें भ्रम कूप ॥१८॥ यह अज्ञान विषम ग्रह क्रूर, लगो अनादि जीव के भूर। जारौं देहादिक को मूढ़, आप रूप जानें अतिरूढ़ ॥१९॥
जो तन में आतम बुधि अन्ध , सो ही रचैं देह सम्बन्ध। चिद्गुण में आतम बुधि जोय, करत सो भिन्न देहतें सोय ॥२०॥ तन में अहं बुद्धि ही जानें, बन्धु धनादि विकल्प सु घनें। तिन को लख अपने सउ जीव, आप ठगाने सकल सदीव ॥२१॥
आतम भाव देह में जोय, स्थिति भववृक्ष वर्धक सोय। तातें ध्यावहु अन्तर इष्ट, तज इन्द्रिय रज वाहिज दिष्ट ॥२२॥ तारौं इन्द्रिय वश निज त्याग, मैं विषयन में कीनो राग। सो मैं इन ही के परसङ्ग, जानों नहिं निज रूप अभङ्ग ॥२३॥ तज बाहिज दृग विषय अनिष्ट, अन्तरात्मा होय सुद्रिष्ट । यो ही योग करे परकास, परम जोग निर्मल गुण राश ॥२४॥ जो कछु रूप देखवे योग, सो मोतें पर बिन उपयोग। ज्ञान रूप दीसत नहिं नैन, तो कासों में भाखों बैन ॥२५॥ जो मैं पर की शिक्षा लेउँ वा मैं पर को शिक्षा देंउँ। सो है यह भ्रम बुद्धि असार, में तो स्वयं बुद्धि अविकार ॥२६॥ जो निज चिदगुण ही को ग्रहे, निज रौं भिन्न न परगुण बहें। सो मैं विज्ञानी अविकल्प, स्वसंवेद्य कैवल्य अनल्य ॥२७॥ जो सांकल को सर्प पिछान, करे क्रिया भ्रम कोय अज्ञान। तैसे मेरी परव क्रिया, देहादिक में निज भूम धिया (२८ ॥
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