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[ वृहद् आध्यात्मिक पाठ संग्रह धनि धन्य हैं जे जीव नरभव, पाय यह कारज किया। तिन ही अनादि भ्रमण पंच प्रकार, तजि वर सुख लिया ॥१३॥ मुख्योपचार दुभेद यों, बड़भागि रत्नत्रय धरैं । अरु धरेंगे ते शिव लहैं, तिन सुयश-जल जग-मल हरैं ॥ इमि जानि आलस हानि, साहस ठानि यह सिख आदरौ । जबलौं न रोग जरा है, तबलौं झटिति निज हित करौ ॥१४॥ यह राग - आग दहै सदा, तातैं समामृत सेइये । चिर भजे विषय-कषाय अब तो, त्याग निज-पद बेइये ॥ कहा रच्यो पर-पद में न तेरो पद यहै क्यों दुःख सहै । अब ' दौल' होउ सुखी स्व-पद रचि दाव मत चूको यहै ॥१५ ॥ (दोहा)
इक नव वसु इक वर्ष की, तीज शुकल वैशाख । कयौ तत्त्व-उपदेश यह, लखि 'बुधजन' की भाख ॥१६ ॥ लघु-धि तथा प्रमादतें, शब्द - अर्थ की भूल । सुधी सुधार पढ़ो सदा जो पावो भव - कूल ॥१७॥
आत्मबोध
(दोहा)
परम जोति बन्दों सकल, दर्पण तुल्य त्रिकाल । युगपत प्रतिबिम्बत जहाँ, सकल पदारथ - माल ॥ (चौपाई)
जो निजरूप न जाने सही, परमातम सो जाने नहीं । तातें प्रथम स्वरूपहि जान, जातें जानें पुरुष प्रधान ॥१॥ जो निज तत्त्वहि जाने नाहिं, तसु थिरता नहिं आतम माहिं । सो तन चेतन भिन्न पिछान, कर न सके मोहित अज्ञान ॥२॥ निज पर भेद लखे नहिं जोय, आत्मलाभ ताको नहिं होय । ता बिन निज प्रबोध अंकूर, प्रापति स्वप्न माहिं अति दूर ॥३ ॥
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