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छहढाला
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तप तपैं द्वादश, धरैं वृष दश, रत्नत्रय सेवैं सदा । मुनि साथ में वा एक विचरै, चहैं नहिं भव-सुख कदा ॥ यों है सकल संयम चरित, सुनिये स्वरूपाचरन अब । जिस होत प्रगटै आपनी निधि, मिटै पर की प्रवृत्ति सब ॥७ ॥ जिन परम पैनी सुबुधि छैनी, डारि अन्तर भेदिया । वरणादि अरु रागादि तैं, निज भाव को न्यारा किया || निजमाहिं निज के हेतु, निज कर आपको आपै गह्यौ । गुण- गुणी ज्ञाता - ज्ञान - ज्ञेय, मँझार कछु भेद न रह्यौ ॥८ ॥ जहँ ध्यान- ध्याता - ध्येय को, न विकल्प वच-भेद न जहाँ । चिद्भाव कर्म चिदेश कर्ता, चेतना किरिया तहाँ ॥ तीनों अभिन्न अखिन्न शुध, उपयोग की निर्मल दसा । प्रगटी जहाँ दुग-ज्ञान-व्रत, ये तीनधा एकै लसा ॥९ ॥ परमाण-नय-निक्षेप को, न उद्योत अनुभव में दिखै । दृग-ज्ञान-सुख बलमय सदा, नहिं आन भाव जु मो विषै ॥ मैं साध्य-साधक मैं अबाधक, कर्म अरु तसु फलनितैं । चित्पिण्ड चण्ड अखण्ड सुगुणकरण्ड, च्युति पुनि कलनितें ॥ १० ॥ यों चिन्त्य निज में थिर भये, तिन अकथ जो आनन्द लह्यौ । सो इन्द्र नाग नरेन्द्र वा, अहमिन्द्र के नाहीं कह्यौ ॥ तब ही शुक्ल ध्यानाग्नि करि, चउ घाति विधि कानन दह्यौ । सब लख्यौ केवलज्ञान करि, भविलोक कों शिवमग कह्यौ ॥११॥ पुनि घाति शेष अघाति विधि, छिनमाहिं अष्टम भू बसैं । वसु कर्म विनसैं सुगुण वसु, सम्यक्त्व आदिक सब लसैं ॥ संसार खार अपार, पारावार तरि तीरहिं गये । अविकार अकल अरूप शुचि, चिद्रूप अविनाशी भये ॥ १२ ॥ निजमांहि लोक अलोक, गुण- परजाय प्रतिबिम्बित भये । रहिहैं अनन्तानन्त काल यथा तथा शिव परिणये ॥
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