________________
२९४]
[वृहद् आध्यात्मिक पाठ संग्रह छठवीं ढाल
(हरिगीतिका) षट्काय जीव न हनन”, सब विधि दरब हिंसा टरी। रागादि भाव निवारतें, हिंसा न भावित अवतरी॥ जिसके न लेश मृषा न जल, मृण हू बिना दीयौ गहैं। अठ-दश सहस विधि शील धर, चिद्ब्रह्म में नित रमि रहैं ॥१॥ अन्तर चतुर्दश भेद बाहिर, संग दशधातै टलैं । परमाद तजि चौकर मही लखि, समिति ई- चलैं॥ जग सुहिसकर सब अहितहर, श्रुति सुखदत्सब संशय हरैं। भ्रम-रोग हर जिनके वचन, मुख-चन्द्रः अमृत झ३ ॥२॥ छयालीस दोष बिना सुकुल, श्रावक तनैं घर अशन को। लैं तप बढ़ावन हेत नहिं सन, पोषते तजि रसन को। शुचि ज्ञान संयम उपकरण, लखि कै ग, लखि कै धरैं। निर्जन्तु थान विलोकि तन मल, मूत्र श्लेषम परिहरैं ॥३॥ सम्यक् प्रकार निरोध मन-वच-काय आतम्म ध्यावते। तिन सुथिर मुद्रा देखि मृगगण, उपल खाज खुजावते॥ रस रूप गंध तथा फरस अरु, शब्द शुभ असुहावने। तिनमें न राग विरोध, पंचेन्द्रिय जयन पद पावने ॥४॥ समता सम्हारें, थुति उचारें, वन्दना जिनदेव की। नित करें, श्रुति-रति करें प्रतिक्रम, तजै तन अहमेव की॥ जिनक न न्हौन न दन्तधोवन, लेश अम्बर आवरन। भूमाहिं पिछली रयनि में, कछु शयन एकाशन करन ॥५॥ इक बार दिन में लैं अहार, खड़े अलप निज-पान में। कचलोंच न करत डरत परिषह, सों लगे निज-ध्यान में। अरि-मित्र महल-मसान कंचन-काँच निन्दन-थुतिकरन। अर्घावतारन असि-प्रहारन में सदा समता धरन॥६॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org