________________
छहढाला
]
[ २९३
जोबन गृह गोधन नारी, हय गय जन आज्ञाकारी । इन्द्रिय- भोग छिन थाई, सुरधनु चपला चपलाई ॥३ ॥ सुर असुर खगाधिप जेते, मृग ज्यों हरि काल दले ते। मणि मन्त्र तन्त्र बहु होई, मरते न बचावे कोई ॥४ ॥ चहुँ गति दुःख जीव भरे हैं, परिवर्तन पंच करे हैं। सब विधि संसार असारा, यामें सुख नाहिं लगारा ॥५ ॥ शुभ-अशुभ करम फल जेते, भोगे जिय एक हि तेते | सुत दारा होय न सीरी, सब स्वारथ के हैं भीरी ॥ ६ ॥ जल-पय ज्यों जिय तन मेला, पै भिन्न-भिन्न नहिं भेला । तो प्रकट जुदे धन धामा, क्यों है इक मिल सुतरामा ॥७॥ पल रुधिर राध मल थैली, कीकस वसादितैं मैली । नव द्वारा बहैं घिनकारी, अस देह करें किम यारी ॥८ ॥ जो योगन की चपलाई, तातैं है आस्रव भाई । आस्रव दुःखकार घनेरे, बुधिवन्त तिन्हें निरवेरे ॥९ ॥ जिन पुण्य-पाप नहिं कीना, आतम अनुभव चित दीना । तिन ही विधि आवत रोके, संवर लहि सुख अवलोके ॥ १० ॥ निज काल पाय विधि झरना, तासों निज काज न सरना । तप करि जो कर्म खिपावै, सोई शिवसुख दरसावै ॥११॥ किनहू न कर्यो न धरै को, षट्द्रव्यमयी न हरै को । सो लोक मांहि बिन समता, दुःख सहै जीव नित भ्रमता ॥१२॥ अन्तिम ग्रीवक लौं की हद, पायो अनन्त बिरियाँ पद । पर सम्यग्ज्ञान न लाधौ, दुर्लभ निज में मुनि साधौ ॥१३॥ जो भावमोह तैं न्यारे, दृग ज्ञान व्रतादिक सारे । सो धर्म जबै जिय धारै, तब ही सुख अचल निहारै ॥१४ ॥ सो धर्म मुनिन करि धरिये, तिनकी करतूति उचरिये । ताको सुनिये भवि प्रानी, अपनी अनुभूति पिछानी ॥ १५ ॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org