________________
भक्तामर स्तोत्र ]
[ १९
हरिहरादि देवों का ही मैं, मानूँ उत्तम अवलोकन । क्योंकि इन्हें देखने भर से, तुझसे तोषित होता मन ॥ है परन्तु क्या तुम्हें देखने, से हे स्वामिन् मुझको लाभ। जन्म-जन्म में लुभा न पाते, कोई यह मेरा अभिताभ ॥२१॥
सौ सौ नारी सौ सौ सुत को, जनती रहतीं सौ सौ ठौर । तुम से सुत को जनने वाली, जननी महती क्या है और ॥ तारागण को सर्व दिशायें, धरें नहीं कोई खाली । पूर्व दिशा ही पूर्ण प्रतापी, दिनपति को जननेवाली ॥२२॥
तुमको परमपुरुष मुनि मानें, विमलवर्ण रवि तमहारी । तुम्हें प्राप्त कर मृत्युञ्जय के, बन जाते जन अधिकारी ॥ तुम्हें छोड़कर अन्य न कोई, शिवपुर पथ बतलाता है। किन्तु विपर्यय मार्ग बताकर, भव-भव में भटकाता है ॥२३॥
तुम्हें आद्य अक्षय अनन्त प्रभु, एकानेक तथा योगीश । ब्रह्मा ईश्वर या जगदीश्वर, विदितयोग मुनिनाथ मुनीश ॥ विमल ज्ञानमय या मकरध्वज, जगन्नाथ जगपति जगदीश । इत्यादिक नामों कर माने, सन्त निरन्तर - विभो निधीश ॥ २४ ॥
ज्ञान पूज्य है, अमर आपका, इसीलिए कहलाते बुद्ध । भुवनत्रय के सुख- सम्वर्धक, अत: तुम्हीं शङ्कर हो शुद्ध ॥ मोक्षमार्ग के आद्य प्रवर्तक, अतः विधाता कहें गणेश । तुम सम अवनी पर पुरुषोत्तम, और कौन होगा अखिलेश ॥ २५ ॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org