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[ वृहद् आध्यात्मिक पाठ संग्रह परद्रव्यनतैं भिन्न आप में, रुचि सम्यक्त्व भला है। आपरूप को जानपनो सो, सम्यग्ज्ञान कला है ॥ आपरूप में लीन रहे थिर, सम्यक्चारित सोई । अब व्यवहार मोक्ष-मग सुनिये, हेतु नियत को होई ॥२ ॥ जीव-अजीव तत्त्व अरू आस्रव बंध रु संवर जानो । निर्जर मोक्ष कहे जिन तिन को, ज्यों का त्यों सरधानो ॥ है सोई समकित व्यवहारी, अब इन रूप बखानो । तिनको सुन सामान्य-विशेषै, दृढ़ प्रतीति उर आनो ॥३ ॥ बहिरातम अन्तर- आतम, परमातम जीव त्रिधा है। देह - जीव को एक गिनै, बहिरातम तत्त्व मुधा है ॥ उत्तम मध्यम जघन त्रिविध के, अन्तर आतम ज्ञानी । द्विविध सङ्ग बिन शुध उपयोगी, मुनि उत्तम निजध्यानी ॥४ ॥ मध्यम अन्तर आतम हैं जे, देशव्रती अनगारी । जघन कहे अविरत समदृष्टि तीनों शिवमगचारी ॥ सकल-निकल परमातम द्वैविध, तिनमें घाति निवारी | श्री अरहंत सकल परमातम, लोकालोक निहारी ॥५ ॥ ज्ञानशरीरी त्रिविध कर्ममल वर्जित सिद्ध महन्ता । ते हैं निकल अमल परमातम, भोगें शर्म अनन्ता ॥ बहिरातमता हेय जानि तजि, अन्तर- आतम हूजै । परमातम को ध्याय निरन्तर, जो नित आनन्द पूजै ॥६ ॥ चेतनता बिन सो अजीव है, पंच भेद ताके हैं। पुद्गल पंच वरन रस गन्ध दो, फरस वसू जाके हैं ॥ जिय पुद्गल को चलन सहाई, धर्मद्रव्य अनरूपी । तिष्ठत होय अधर्म सहाई, जिन बिन मूर्ति निरूपी ॥७॥ सकल द्रव्य को वास जास में, सो आकाश पिछानो । नियत वर्तना निस-दिन सो, व्यवहार काल परमानो॥
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