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छहढाला
[२८९ यों अजीव अब आस्रव सुनिये, मन-वच-काय त्रियोगा। मिथ्या अविरति अरु कषाय, परमाद सहित उपयोगा ॥८॥ ये ही आतम को दुःख कारण, तातै इनको तजिये। जीव प्रदेश बँधे विधि सौं, सो बन्धन कबहुँ न सजिये। शम-दमतें जो कर्म न आवै, सो संवर आदरिये। तप बलते विधि-झरन निर्जरा, ताहि सदा आचरिये ॥९॥ सकल कर्म” रहित अवस्था, सो शिव थिर सुखकारी। इह विधि जो सरधा तत्त्वन की, सो समकित व्यवहारी॥ देव जिनेन्द्र, गुरु परिग्रह बिन, धर्म दयाजुत सारो। ये हु मान समकित को कारण, अष्ट अङ्गजुत धारो ॥१०॥ वसु मद टारि निवारि त्रिशठता, षट् अनायतन त्यागो। शंकादिक वसु दोष बिना, संवेगादिक चित पागो॥ अष्ट अङ्ग अरु दोष पचीसौं तिन संक्षेपहु कहिये। बिन जाने ते दोष-गुनन को, कैसे तजिये गहिये ॥११ ।। जिन-वच में शङ्का न धार, वृष भव-सुख-वाँछा भानै। मुनि-तन मलिन न देख घिनावै, तत्त्व-कुतत्त्व पिछाने। निज-गुण अरु पर औगुण ढांक, वा निज धर्म बढ़ावै। कामादिक कर वृषः चिगते, निज-पर को सुदिढ़ावै॥१२॥ धर्मी सौं गौ-बच्छ प्रीति सम, कर जिनधर्म दिपावै। इन गुन” विपरीत दोष वसु, तिनको सतत खिपावै॥ पिता भूप वा मातुल नृप जो, होय न तो मद ठानै। मद न रूप कौ, मद न ज्ञान को, धन-बल कौ मद भानै ॥१३॥ तपकौ मद न मद जु प्रभुता कौ, करै न सो निज जानै। मद धारै तो यहि दोष वसु, समकित को मल ठाने। कुगुरु कुदेव कुवृष सेवक की, नहिं प्रशंस उचरै है। जिन-मुनि जिन-श्रुति बिन कुगुरादिक तिन्हें न नमन करै है॥१४॥
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